Class 10th Economics chapter 4 हमारी वित्तीय संस्था

वित्तीय संस्थाएं - हमारे देश की वे संस्थाएं  जो आर्थिक विकास के लिए उद्यम एवं व्यवसाय के वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ऐसी संस्थाओं को वित्तीय संस्थाएं कहते हैं। 
जैसे - RBI 

सरकारी वित्तीय संस्थाएं - सरकार द्वारा स्थापित एवं संपोषित वित्तीय संस्थाओ को सरकारी वित्तीय संस्थाएं कहते हैं। 
जैसे - SBI,CBI,PNB, इलाहाबाद बैंक इत्यादि। 

अर्द्ध सरकारी वित्तीय संस्थाएं - ऐसी वित्तीय संस्थाएं जो सरकार के केंद्रीय बैंक (RBI) के निर्देशन में उनके द्वारा स्थापित मापदंडों पर समाज के लोगों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, उसे अर्द्ध सरकारी वित्तीय संस्थाएं कहते हैं। 

सूक्ष्म वित्तीय संस्थाएं - छोटे परिवार पैमाने पर गरीब जरूरतमंद लोगों को स्वयं सेवी संस्था के माध्यम से कम ब्याजने  पर साख अथवा ऋण की व्यवस्था करने वाली संस्था को सूक्ष्म वित्तीय संस्थाएं कहते हैं। 

वित्तीय संस्थाएं दो प्रकार की होती है –
(क) राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं 
(ख) राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएं 
 
(क) राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ (National Financial Institutions) - ऐसी वित्तीय संस्थाएँ जो देश के लिए वित्तीय और साख नीतियों का निर्धारण एवं निर्देशन करती है तथा राष्ट्रीय स्तर पर वित्त प्रबंधन के कार्यों का संपादन करती है उसे हम राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं।

इनके दो महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं-

(क) भारतीय मुद्रा बाजार (Indian Money Market)

(ख) भारतीय पूँजी बाजार) (Indian Capital Market)


देश की संगठित बैंकिंग प्रणाली निम्नलिखित तीन प्रकार की बैंकिंग व्यवस्था के रूप में कार्यशील है -

1. केन्द्रीय बैंक (Central Bank) - भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) देश की केन्द्रीय बैंक है। यह देश की शीर्ष बैंकिंग संस्था के रूप में बैंकिंग, वित्तीय और आर्थिक क्रियाओं का दिशा-निर्देश एवं संचालन में सहयोग देती है।

2. वाणिज्य बैंक (Commercial Bank) - देश में अनेक वाणिज्य बैंकों के द्वारा बैंकिंग एवं वित्तीय क्रियाओं का संचालत होता है। अधिकतर वाणिज्य बैंक सरकार के सीधे नियंत्रण में काम करती है जिसे राष्ट्रीयकृत वाणिज्य बैंक कहते हैं। ये बैंक निजी क्षेत्र की बैंक होती है


3.सहकारी बैंक (Co-Operative Bank)- महकारिता क्षेत्र में आपसी सहयोग के भावना आधार पर भी अनेक वित्तीय संस्थाएँ कार्यशील हैं। सहकारी बैंक अलग-अलग राज्यों में अलग नाम से जाना जाता है। यद्यपि ये बैंक केन्द्रीय बैंक (RBI) के दिशा निर्देश पर काम करती है किन्तु इसकी व्यवस्था का संचालन राज्य सरकारों के द्वारा किया जाता हैं 


भारतीय पूँजी बाजार (Indian Capital Market)

भारतीय पूँजी बाजार मुख्यतः दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराती है। दीर्घकालीन पूँजी की माँग बड़े-बड़े उद्योग घराने एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के लिए होता है। 

भारतीय पूँजी बाजार मूलतः इन्हीं चार वित्तीय संस्थानों पर आधारित है जिसके चलते राष्ट्र-स्तरीय सार्वजनिक विकास जैसे सड़क, रेलवे, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, विद्युत उत्पादन संयंत्र एवं बड़े-बड़े निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग संचालित किए जाते हैं। के निर्माण में इन वितीय संस्थानों का काफी योगदान है।

वित्तीय संस्थाएँ किसी भी देश का मेरुदंड (Back Bone) माना जाता है।  

राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ (बिहार के संदर्भ में)

हम जानते हैं कि बिहार की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है। जहाँ 87 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है तथा करीब 75 प्रतिशत लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि एवं उससे संबंधित लघु-कुटीर उद्योग से जुड़े हुए हैं। यहाँ के अधिकांश किसान छोटे या सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं जिनके पास आय (Income) की कमी है तथा वे अपना बचत (Saving) नहीं के बराबर कर पाते हैं। फलतः कृषि एवं उससे संबंधित उद्योगों में खुद अपेक्षित निवेश (Investment) नहीं कर पाते, इसके लिए उन्हें वित्तीय संस्थाएँ द्वारा प्राप्त ऋण की जरूरत पड़ती है ।

बिहार में दो प्रकार के वित्तीय संस्थान कार्यरत है।
1. गैर संस्थागत
2. संस्थागत












संस्थागत वित्तीय स्त्रोत (Sources of Institutional Finance)

संस्थागत वित्तीय स्रोत के निम्नलिखित रूप है-

1. सहकारी बैंक (Co-operative Bank)- हमारे राज्य में सहकारी बैंक द्वारा उपलब्ध सहकारी साख व्यवस्था त्रिस्तरीय है-

A. गाँवों में प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ

B. जिला स्तर पर केन्द्रीय सहकारी बैंक

C. राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंक

इनके माध्यम से बिहार के किसानों को अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण को सुविधा उपलब्ध होती है। राज्य में 25 केन्द्रीय सहकारी बैंक जिला स्तर पर तथा राज्य स्तर पर एक बिहार राज्य सहकारी बैंक कार्यरत है।

2. प्राथमिक सहकारी समितियाँ (Primary Co-operative Socicities)-इसकी स्थापना कृषि क्षेत्र की अल्पकालीन ऋणों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए की गई है। एक गाँव अथवा क्षेत्र के कोई भी कम से कम दस व्यक्ति मिलकर एक प्राथमिक साख समिति का निर्माण कर सकते हैं। ये समितियाँ प्राथमिक कृषि साख समितियाँ (Primary Agriculture Co-operative Societies PACS) कहलाती है। 
 राज्य के दसवीं पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भिक प्रारूप के अनुसार, बिहार में 6842 प्राथमिक सहकारी कृषि साख समितियाँ कार्यरत हैं।

3. भूमि विकास बैंक (Land Development Bank) - राज्य में किसानों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने के लिए भूमि बंधक बैंक खोला गया था, जिसे अब भूमि विकास बैंक कहा जाता है। टैक्टर, पावर टीलर, पंपिंग सेट, मकान बनाने या पुराने ऋणों का भुगतान, कृषि में स्थायो सुधार के लिए 15 से 20 वर्षों तक का ऋण भूमि विकास बैंक द्वारा प्राप्त होता है। 

4. व्यावसायिक बैंक (Commercial Bank)- देश में बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण की नीति (1968) तथा बाद में उनका राष्ट्रीयकरण (1969) के बाद व्यावसायिक बैंक अधिक मात्रा में किसानों को ऋण प्रदान करने लगे। 
2000-01 में लक्ष्य का मात्र 44 प्रतिशत ही कृषि साख प्रदान किया गया। बिहार में अनुमानतः 700 करोड़ रुपये से अधिक की कृषि साख की जरूरत है, जबकि उपलब्धता मात्र 548 करोड़ रुपये की ही हुई ।

5. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (Regional Rural Bank)- सीमान्त एवं छोटे किसानों, कारीगरों तथा अन्य कमजोर वर्ग के जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक देश में 1975 ई० में स्थापित किया गया। । देश में अभी 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक कार्यरत हैं। 

6. नार्वाड (NABARD)-  राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) देश में कृषि तथा ग्रामीण विकास के लिए पुनर्वित (Refinancing) प्रदान करनेवाली शिखर संस्था है। यह कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए सरकारी संस्थाओं, व्यावसायिक बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को वित्त की सुविधा प्रदान करता है जो पुनः किसानों को यह सुविधा प्रदान करते हैं। 


व्यावसायिक बैंक का कार्य (Function of Commercial Bank)

हमारे देश में व्यावसायिक बैंक की प्रधानता है। ये अर्थव्यवस्था के बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है।  वास्तव में, व्यावसायिक बैंक विभिन्न प्रकार के कार्यों के द्वारा समाज एवं राष्ट्र की सेवा करते हैं।

व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य उल्लेखनीय है-
1. जमा राशि को स्वीकार करना  - 
व्यवसायिक बैंकों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य अपने ग्राहकों से जमा के रूप में मुद्रा प्राप्त करना है।

व्यावसायिक बैंक प्रायः चार प्रकार से जमा राशि स्वीकार करते हैं-

(1) स्थायी जमा (Fixed Deposits)- स्थायी जमा खाते में रुपया एक निरिक अवधि जैसे वर्ष या इससे अधिक के लिए भी जमा किया जाता है। 

(2) चालू जमा (Current Deposits)- चालू जमा खाते में रुपया जमा करनेवाला अपनी इच्छानुसार रुपया जमा करता है अथवा निकाल सकता है। इसमें किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं रहता । 

(3) संचयी जमा (Saving Deposits)- इस प्रकार के खाते में रुपया जमा करनेवाला जब चाहे रुपया जमा कर सकता है, किन्तु रुपया निकालने का अधिकार सीमित रहता है, वह भी एक निश्चित रकम से अधिक नहीं। 

(iv) आवर्ती जमा (Recurring Deposits) इस प्रकार के खाते में व्यावसायिक बैंक साधारणतया अपने ग्राहकों से प्रतिमाह एक निश्चित रकम जमा के रूप में एक निश्चित अवधि जैसे 60 माह या 72 माह के लिए ग्रहण करता है और इसके बाद एक निश्चित रकम भी देता है।

2. ऋण प्रदान करना (Providing Loans) व्यावसायिक बैंक का दूसरा मुख्य कार्य लोगों को ऋण प्रदान करना है। बैंक के पास जो रुपया जमा के रूप में आता है, उसमें से एक निश्चित राशि नकद कोष में रखकर बाकी रुपया बैंक द्वारा दूसरे व्यक्तियों को उधार दे दिया जाता है। 

व्यावसायिक बैंक निम्न प्रकार से ऋण प्रदान करते हैं-

(1) अभियाचित एवं अल्पकालिक ऋण (Loans at call and short notice) इस प्रकार का ऋण अति अल्पकाल यानि एक दिन से लेकर एक सप्ताह तक के लिए या केवल माँगने पर वापस करने के लिए दिया जाता है। 

(ii) नकद साख (Cash credit)-  इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत बैंक अपने ग्राहकों को ऋण पत्र (Bonds), व्यापारिक माल अथवा अन्य स्वीकृत प्रतिभूतियों (Securities) के आधार पर ऋण देते हैं।

(iii) अधिविकर्ष (Overdraft) जब कभी भी कोई व्यावसायिक बैंक अपने ग्राहकों को उसके खाते में जमा रकम से अधिक रकम निकालने की सुविधा देता है तो उसे अधिविकर्ष की सुविधा कहते हैं। 

(iv) विनिमय बिलों को भुनाना (Discounting of Bill of Exchange)-  व्यावसायिक बैंक विनिमय बिलों को भुनाकर भी ग्राहकों को ऋण प्रदान करता है। इस प्रकार के ऋण में बैंक बिलों में से कुछ कटौती करके वाकी राशि का भुगतान ऋणी को कर देता है। 

(5) ऋण एवं अग्रिम (Loans and Advance) जब ऋण एक पूर्व निश्चित अवधि के लिए दिया जाता है तो उसे ऋण अथवा अग्रिम कहते हैं। 

3. सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य General Utility Functions)  इसके अतिरिक्त व्यावसायिक बैंक अन्य बहुत से कार्यों को भी संपन्न करते हैं जिन्हें सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य कहा जाता है। जैसे-

(1) पात्री चेक एवं साख प्रमाण पत्र जारी करना (Traveller's cheque and to issue letters of credit) ये अपने ग्राहकों के लिए साख-पत्र एवं यात्री चेक भी जारी करते हैं जिसकी सहायता से व्यापारी विदेशों से भी सुगमतापूर्वक माल उधार खरीदते हैं। 

(2) लॉकर की सुविधा (Locker Facilities)- बैंक अपने ग्राहकों को लॉकर्स की सुविधा भी प्रदान करता है जिनमें लोग अपने सोने-चाँदी के जेवर तथा आवश्यक कागज पत्र सुरक्षित रख सकते हैं। इसका वार्षिक किराया बहुत कम होता है।

(iii) ATM एवं क्रेडिट कार्ड सुविधा (ATM and Credit Card Facilities)-आधुनिक समय में बैंक अपने खाता धारकों को 24 घंटे धन निकालने की सुविधा के रूप AIM सेवा दे रहे हैं। साथ ही क्रेडिट कार्ड की सुविधा प्रदान होने से ग्राहक विश्व में एक निश्चित राशि तक खरिदारी करके कार्ड द्वारा भुगतान कर सकता है।

(iv) व्यापारिक सूचनाएँ एवं आंकड़े एकत्रीकरण (Collecting Business Infor-mations and Statistics) बैंक आर्थिक स्थिति से परिचित होने के कारण व्यापार संबंधी सूचनाएँ एवं आँकड़े एकत्रित करके अपने ग्राहकों को वित्तीय मामलों पर सलाह देते हैं।

4. एजेंसी संबंधी कार्य (Agency Functions) वर्तमान समय में व्यावसायिक बैंक ग्राहकों को एजेंसी के रूप में सेवा करते हैं। इसके अन्तर्गत बैंक (a) चेक, विल व ड्राफ्ट का संकलन, (b) ब्याज तथा लाभांश का संकलन तथा वितरण, (c) ब्याज, ऋण की किस्त, बीमे की किस्त का भुगतान, (d) प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय तथा (c) ड्राफ्ट तथा डाक द्वारा कोष का हस्तांतरण आदि क्रियाएँ करती हैं।


सहकारिता (Co-operation)
 सहकारिता का अर्थ है "एक साथ मिल-जुलकर कार्य करना" लेकिन, अर्थशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में किया जाता है, "सहकारिता वह संगठन है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक मिल-जुलकर समान स्तर पर आर्थिक हितों की वृद्धि करते हैं। इस प्रकार सहकारिता उस आर्थिक व्यवस्था को कहते हैं जिसमें मनुष्य किसी आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिल-जुलकर कार्य करते हैं। अंततः इसका सिद्धांत "सब प्रत्येक के लिए और प्रत्येक सबके लिए है।"


भारत में सहकारिता का विकास
 इसके लिए सर्वप्रथम 1904 ई० में एक "सहकारिता साख समिति विधान" पारित हुआ। जिसके अनुसार गाँव या नगर में कोई भी दस व्यक्ति मिलकर सहकारी साख समिति की स्थापना कर सकते थे।

1904 के अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित होनेवाली सहकारी समितियों की कार्यप्रणाली में सुधार लाने तथा इसके क्षेत्र को विस्तृत रूप देने के लिए 1912 ई० में एक और अधिनियम बनाया गया। इस नए अधिनियम में ऋण के अतिरिक्त, अन्य उद्देश्यों के लिए सहकारी समितियाँ स्थापित करने एवं प्राथमिक समितियों की देखभाल के लिए केन्द्रीय संगठनों की स्थापना को व्यवस्था की गई। पुनः इसकी प्रगति की समीक्षा एवं इसके भावी विकास की रूपरेखा निर्धारित करने के उद्देश्य से 1914 ई० में मेक्लेगन समिति नियुक्त की गई। 1919 ई० के राजनीतिक सुधारों के अनुसार सहकारिता प्रांतीय सरकारों का हस्तांतरित विषय  बन गई। अतएव, इसके संचालन का भार अब राज्य सरकारों के हाथ में आ गया।

1929 ई० की महान आर्थिक मंदी ने इसके विकास पर विराम लगा दिया। लेकिन, 1935 ई० में हमारे भारत में रिर्जव बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई। 



स्वयं-सहायता समूह (Self Help Group)

स्वयं-सहायता समूह वास्तव में ग्रामीण क्षेत्र में 15-20 व्यक्तियों (खासकर महिलाओं) का एक अनौपचारिक समूह होता है जो अपनी बचत तथा बैंकों से लघु ऋण लेकर अपने सदस्यों के पारिवारिक जरूरतों को पूरा करते हैं और विकास गतिविधियाँ चलाकर गाँवों का विकास और महिला सशक्तिकरण में योगदान करते हैं।

ऐतिहासिक-पृष्ठभूमि

भारत में सर्वप्रथम इसकी शुरुआत व विकास कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने ग्रामीण क्षेत्रों के व्यक्तियों को संगठित करके आय संबंधित गतिविधियों के संचालन के लिए 1980 के दशक के अंत में की। परन्तु 1990 के दशक की शुरुआत में राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) की पहल व विशेष रुचि लेने से स्वयं-सहायता समूह पूरे देश में फैल गए। 

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Question)

1. गैर संस्थागत वित्त प्रदान करने वाला सबसे लोकप्रिय साधन है-
उत्तर - महाजन
2.इनमें से कौन संस्थागत वित्त को साधन है
उत्तर - व्यावसायिक बैंक
3. भारत का केन्द्रीय बैंक कौन है ?
उत्तर - रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया
4.राज्य में कार्यरत केन्द्रीय सहकारी बैंक की संख्या कितनी है।
उत्तर -25
5. दीर्घकालीन ऋण प्रदान करनेवाली संस्था कौन सी है।
उत्तर - भूमि विकास बैंक
6. भारत की वित्तीय राजधानी (Financial Capital) किस शहर को कहा गया है।
उत्तर - मुंबई
7. सहकारिता प्रांतीय सरकारों का हस्तांतरित विषय कब बनी।
उत्तर - 1919 ई०
8. देश में अभी कार्यरत क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संख्या है। 
उत्तर - 196
9. व्यावसायिक बैंक का राष्ट्रीयकरण कब किया गया।
उत्तर - 1969 ई०

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें ।

1. साख अथवा ऋण की आवश्यकताओं की पूर्ति वित्तीय संस्थानों के द्वारा की जाती है।

2. ग्रामीण क्षेत्र में साहुकार द्वारा प्राप्त ऋण की प्रतिशत मात्रा 3% है।

3. प्राथमिक कृषि साख समिति कृषकों को आपकालीन ऋण प्रदान करती है।

4. भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1935 में हुई।

5. वित्तीय संस्थाएँ किसी भी देश का मेरुदंड माना जाता है।

6. स्वयं सहायता समूह में लगभग 15-20 सदस्य होते हैं।

7. SHG में बचत और ऋण संबंधित अधिकार निर्णय समूह के सदस्य लेते हैं।

8. व्यावसायिक बैंक चार प्रकार की जमा राशि को स्वीकार करते हैं।

9. भारतीय पूँजी बाजार दीर्घकालिक वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

10. सूक्ष्म वित्त योजना के द्वारा छोटे या लघु पैमाने पर साख अथवा ऋण को सुविधा उपलब्ध होता है। 

 लघु उत्तरीय प्रश्न

1. वित्तीय संस्थान से आप क्या समझते हैं । 
उत्तर - हमारे देश की वे संस्थाएं जो आर्थिक विकास के लिए उद्यम एवं व्यवसाय के वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ऐसी संस्थाओं को वित्तीय संस्थाएं कहते हैं। 

2. राज्य की वित्तीय संस्थान को कितने भागों में बाँटा जाता है, संक्षिप्त वर्णन करें ।
उत्तर - राज्य वित्तीय संस्थान को दो भागों में बांटा गया है। 
1. गैर संस्थागत         2. संस्थागत 

3. किसानों को साख अथवा ऋण की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर - बिहार के अधिकांश किसान छोटे या सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं जिनके पास आय (Income) की कमी है तथा वे अपना बचत (Saving) नहीं के बराबर कर पाते है। फलतः कृषि एवं उससे संबंधित उद्योगों में खुद अपेक्षित निवेश (Investment) नहीं कर पाते, इसके लिए उन्हें वित्तीय संस्थाएँ द्वारा प्राप्त ऋण को जरूरत पड़‌ती है।

4. व्यावसायिक बैंक कितने प्रकार की जमा राशि को स्वीकार करते हैं ? संक्षिप्त विवरण करें।
उत्तर - व्यावसायिक बैंक प्रायः चार प्रकार से जमा राशि स्वीकार करते हैं-
(1) स्थायी जमा (Fixed Deposits)

(ii) चालू जमा (Current Deposits)

(iii) संचयी जमा (Saving Deposits) तया

(iv) आवर्ती जमा (Recurring Deposits)

5. सहकारिता से आप क्या समझते हैं? 
उत्तर - सहकारिता वह संगठन है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक मिल-जुलकर समान स्तर पर आर्थिक हितों की वृद्धि करते हैं।

6. स्वयं सहायता समूह (Self Help Group) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर - स्वयं-सहायता समूह वास्तव में ग्रामीण क्षेत्र में 15-20 व्यक्तियों (खासकर महिलाओं) का एक अनौपचारिक समूह होता है जो अपनी बचत तथा बैंकों से लघु ऋण लेकर अपने सदस्यों के पारिवारिक जरूरतों को पूरा करते हैं और विकास गतिविधियाँ चलाकर गाँवों का विकास और महिला सशक्तिकरण में योगदान करते हैं।

7. भारत में सहकारिता की शुरुआत किस प्रकार हुई। संक्षिप्त वर्णन करें। 
उत्तर - भारत में सर्वप्रथम 1904 ई० में एक "सहकारिता साख समिति विधान" पारित हुआ। जिसके अनुसार गाँव या नगर में कोई भी दस व्यक्ति मिलकर सहकारी साख समिति की स्थापना कर सकते थे।

8. सूक्ष्म वित्त योजना को परिभाषित करें ।
उत्तर - छोटे परिवार पैमाने पर गरीब जरूरतमंद लोगों को स्वयं सेवी संस्था के माध्यम से कम ब्याजने पर साख अथवा ऋण की व्यवस्था करने वाली संस्था को सूक्ष्म वित्तीय संस्थाएं कहते हैं। 


दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1.राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान किसे कहते हैं ? इसे कितने भागों में बाँटा जाता है।
उत्तर - ऐसी वित्तीय संस्थाएँ जो देश के लिए वित्तीय और साख नीतियों का निर्धारण एवं निर्देशन करती है तथा राष्ट्रीय स्तर पर वित्त प्रबंधन के कार्यों का संपादन करती है उसे हम राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं।

इनके दो महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं-

(क) भारतीय मुद्रा बाजार (Indian Money Market)

(ख) भारतीय पूँजी बाजार) (Indian Capital Market)


देश की संगठित बैंकिंग प्रणाली निम्नलिखित तीन प्रकार की बैंकिंग व्यवस्था के रूप में कार्यशील है -

1. केन्द्रीय बैंक (Central Bank) - भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) देश की केन्द्रीय बैंक है। यह देश की शीर्ष बैंकिंग संस्था के रूप में बैंकिंग, वित्तीय और आर्थिक क्रियाओं का दिशा-निर्देश एवं संचालन में सहयोग देती है।

2. वाणिज्य बैंक (Commercial Bank) - देश में अनेक वाणिज्य बैंकों के द्वारा बैंकिंग एवं वित्तीय क्रियाओं का संचालत होता है। अधिकतर वाणिज्य बैंक सरकार के सीधे नियंत्रण में काम करती है जिसे राष्ट्रीयकृत वाणिज्य बैंक कहते हैं। ये बैंक निजी क्षेत्र की बैंक होती है


3.सहकारी बैंक (Co-Operative Bank)- महकारिता क्षेत्र में आपसी सहयोग के भावना आधार पर भी अनेक वित्तीय संस्थाएँ कार्यशील हैं। सहकारी बैंक अलग-अलग राज्यों में अलग नाम से जाना जाता है। यद्यपि ये बैंक केन्द्रीय बैंक (RBI) के दिशा निर्देश पर काम करती है किन्तु इसकी व्यवस्था का संचालन राज्य सरकारों के द्वारा किया जाता हैं 


भारतीय पूँजी बाजार (Indian Capital Market)

भारतीय पूँजी बाजार मुख्यतः दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराती है। दीर्घकालीन पूँजी की माँग बड़े-बड़े उद्योग घराने एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के लिए होता है। 

भारतीय पूँजी बाजार मूलतः इन्हीं चार वित्तीय संस्थानों पर आधारित है जिसके चलते राष्ट्र-स्तरीय सार्वजनिक विकास जैसे सड़क, रेलवे, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, विद्युत उत्पादन संयंत्र एवं बड़े-बड़े निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग संचालित किए जाते हैं। के निर्माण में इन वितीय संस्थानों का काफी योगदान है।

वित्तीय संस्थाएँ किसी भी देश का मेरुदंड (Back Bone) माना जाता है।  

2. राज्य स्तरीय संस्थागत वित्तीय स्रोत के कार्यों का वर्णन करें ? 
उत्तर - बिहार की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है। जहाँ 87 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है तथा करीब 75 प्रतिशत लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि एवं उससे संबंधित लघु-कुटीर उद्योग से जुड़े हुए हैं। यहाँ के अधिकांश किसान छोटे या सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं जिनके पास आय (Income) की कमी है तथा वे अपना बचत (Saving) नहीं के बराबर कर पाते हैं। फलतः कृषि एवं उससे संबंधित उद्योगों में खुद अपेक्षित निवेश (Investment) नहीं कर पाते, इसके लिए उन्हें वित्तीय संस्थाएँ द्वारा प्राप्त ऋण की जरूरत पड़ती है ।

3. व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कायों की विवेचना करें। 
उत्तर - व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य उल्लेखनीय है-
1. जमा राशि को स्वीकार करना - 
व्यवसायिक बैंकों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य अपने ग्राहकों से जमा के रूप में मुद्रा प्राप्त करना है।
2. ऋण प्रदान करना - व्यावसायिक बैंक का दूसरा मुख्य कार्य लोगों को ऋण प्रदान करना है। बैंक के पास जो रुपया जमा के रूप में आता है, उसमें से एक निश्चित राशि नकद कोष में रखकर बाकी रुपया बैंक द्वारा दूसरे व्यक्तियों को उधार दे दिया जाता है। 
3. सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य - इसके अतिरिक्त व्यावसायिक बैंक अन्य बहुत से कार्यों को भी संपन्न करते हैं जिन्हें सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य कहा जाता है।



4 सहकारिता के मूल तत्त्व क्या है ? राज्य के विकास में इसकी भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर - सहकारिता का अर्थ है "एक साथ मिल-जुलकर कार्य करना" लेकिन, अर्थशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में किया जाता है, "सहकारिता वह संगठन है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक मिल-जुलकर समान स्तर पर आर्थिक हितों की वृद्धि करते हैं। इस प्रकार सहकारिता उस आर्थिक व्यवस्था को कहते हैं जिसमें मनुष्य किसी आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिल-जुलकर कार्य करते हैं। अंततः इसका सिद्धांत "सब प्रत्येक के लिए और प्रत्येक सबके लिए है।

इसके मुख्यत: तीन आधारभूत सिद्धांत है। 
एक तो यह कि यहां संगठन की सदस्यता स्वैच्छिक होती है। लोग अपनी इच्छा से सहकारी संगठन के सदस्य बनते हैं। उनपर कोई बाहरी बंधन या दवाव नहीं होता ।

दूसरा, इसका प्रबंध व संचालन जनतंत्रात्मक आधार पर होता है। इसके सदस्यों के बीच पूँजी, हैसियत अथवा किसी अन्य आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता। वे एक-दूसरे के बराबर समझे जाते हैं और सबको एक जैसे अधिकार व अवसर प्राप्त होते हैं ।

तीसरा, इसके आर्थिक उद्देश्यों में नैतिक और सामाजिक तत्त्व भी शामिल रहते हैं। यह केवल आर्थिक लाभ कमाने के लिए ही नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक पहलू से भी सदस्यों के हितलाभ के लिए कार्य करता है।

5. स्वयं सहायता समूह में महिलाए किस प्रकार अपनी भूमिका निभाते हैं? वर्णन करें। 
उत्तर -  एक स्वयं सहायता समूह में एक-दूसरे के पड़ोसी 15-20 सदस्य होते हैं, जो नियमित रूप से मिलते हैं और बचत करते हैं। प्रति व्यक्ति बचत 25 रुपए से लेकर 100 रुपए या अधिक हो सकते हैं। यह परिवारों को बचत करने की क्षमता पर निर्भर करता है। समूह इन कर्ज पर ब्याज लेता है लेकिन यह साहुकार द्वारा लिए जानेवाले व्याज से कम होता है।

एक या दो वर्षों के बाद अगर समूह नियमित रूप से बचत करता है, तो समूह बैंक में ऋण के योग्य हो जाता है। ऋण समूह के नाम पर दिया जाता है और इसका मकसद सदस्यों के लिए स्वरोजगार के अवसरों का सृजन करना है। उदाहरण के लिए, सदस्यों को छोटे-छोरे कर्ज अपनी गिरवी जमीन छुड़‌वाने के लिए, कार्यशील पूँजी की जरूरतें (बीज, खाद, बाँस और कपड़े खरीदने के लिए), घर बनाने, सिलाई मशीन, हथकरघा, पशु इत्यादि संपत्ति खरीदने के लिए दिए जाते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वयं सहायता समूह कर्जदारों को ऋणाधार की कमी की समस्या से उबारने में मदद करते हैं। उन्हें समयानुसार विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के लिए एक उचित व्याज दर पर ऋण मिल जाता है। इसके अतिरिक्त यह समूह गाँव, कस्बा और जिला के ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों को संगठित करने में मदद करते हैं। 
















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